Nov 23,2024
कबीर साहब ने जीव के दुख की विवेचना करते हुए कहा है कि यह जीव जन्म काल से ही दुखी एवं अशान्त रहता है। इस संसार में यदि किसी सुखी व्यक्ति की खोज की जाय तो उसका मिलना सहज नहीं है। इन्हीं बातों का उन्होंने साखी मैं उल्लेख किया है |
1. जा दिन ते जीव जनमिया। कबहू न पाया सुख।
डाले डाले में फिरा। पाते पाते दुख।
2. कबीर सुख कू जाय था। बीच में मिली गया दुख।
सुख जाहू घर आपने। मै अरु मेरा दुख।
3. सुखिया ढुढंत मै फिरुं। सुखिया मिले ना कोई।
जाके आगे दुख कहु। पहले उठे रोय।
4. जाके आगे इक कहुं। सो कहिबे इकबीस।
एक एक ते दाझिया। कहां ते काढूं बीस।
5. विष का खेत जु खेड़िया।
विष का बोरा झाड़।
फल लागे अंगार से। दुखिया के गलहार।
6.झल बाएं झल दाहिने। झलहि में व्यवहार।
आगे पीछे झलहि है। राखे सिरजन हार।
7. मै रोऊं संसार कूं। मुझे ना रोवै कोय।
मुझको रोवै सो जना। राम सनेही सोय।
8. संख समुंदा बीछुरा। लोग कहे बाजंत।
प्रीतम आपन कारने। घर घर धाह दयंत।
9. करनि बिचारी क्या करै। हरि नहिं होय सहाय।
जिहि जिहि पग धरूं। सो सो नमि नमि जाय।
10. सात द्वीप नौ खंड में। तीन लोक ब्रह्मांड।
कहैं कबीर सबको लगै। देह धरै का दंड।
11. संपत्ति देखि न हरषिये। विपत्ति देखि मत रोय।
संपत्ति है तहां विपत्ति है। करता करै सो होय।
12 . संपत्ति तो हरि मिलन है। विपत्ति जु राम वियोग।
संपत्ति विपत्ति राम कहू। आन कहै सब लोग |
13. लक्ष्मी कहै मै नित नवी। किसकी न पूरी आस।
किते सिंहासन चढ़ि चले। कितने गये निरास।